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क्या भविष्य में 'व्हिस्की' से चलेगी कार? हो चुका है पहले कार का टेस्ट, पेट्रोल-डीजल की हो जायेगी छुट्टी
दुनिया भर में पेट्रोल-डीजल के विकल्प ढूँढा जा रहा है, ऐसे में व्हिस्की इसका विकल्प हो सकती है। जी हां, व्हिस्की के अवशेष से बनाए बायोफ्यूल जिसे बायोब्यूटेनॉल नाम दिया गया है, से कार को टेस्ट किया जा चुका है और यह भविष्य में फॉसिल फ्यूल की जगह ले सकती है। खास बात यह है कि इसके लिए कारों के इंजन को मॉडिफाई करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।
क्या है इतिहास?
ऐसा पहली बार नहीं है कि व्हिस्की को बदलकर और भी कुछ बनाया गया हो। व्हिस्की से बायोब्यूटेनॉल विश्व युध्द 1 के समय भी बनाया जाता था, लेकिन इसका इस्तेमाल विस्फोटक के रूप में किया जाता था लेकिन 1960 के दशक आते आते बायोब्यूटेनॉल का उत्पादन बंद हो गया था। तब तक गैसोलीन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो गयी थी।
जहां बायोब्यूटेनॉल बहुत महंगा हुआ करता था, गैसोलीन इसका सस्ता विकल्प बन चुकी थी जिस वजह से सभी इसका उपयोग करने लगे थे। हालांकि अब फिर से 21वीं सदी में बायोब्यूटेनॉल को एक अच्छे विकल्प के रूप में लिया जा रहा है। भले ही इलेक्ट्रिक कार्स सुनने में अच्छी लगे लेकिन कुछ हद तक वह भी पर्यावरण के लिए घातक है।
कहां से हुई शुरुआत?
स्कॉटलैंड के वैज्ञानिकों ने 2015 में सबसे पहला यह दावा किया था कि उन्होंने व्हिस्की के अवशेषों से एक ऐसे बायोफ्यूल तैयार करने का दावा किया था जो कार को पॉवर करने की क्षमता रखती है। उस समय वैज्ञानिकों ने बायोब्यूटेनॉल का पहला सैम्पल तैयार किया था, सेल्टिक रिन्युएब्ल्स ने इसके उत्पादन के लिए प्रोडक्शन प्लांट लगाने की योजना का खुलासा किया था।
कंपनी को यह बायोफ्यूल तैयार करने नया प्लांट लगाने के लिए 11 मिलियन पाउंड का फंड दिया गया था। इसके बाद 2017 में इस बायोफ्यूल से पहली बार कार का टेस्ट ड्राइव किया गया था जो कि सफल रही थी। कार चलाने वालों ने कहा था कि कार बहुत ही स्मूथ चल रही थी और पेट्रोल-डीजल के मुकाबले इसमें कोई अंतर महससू नहीं किया गया।
कैसे किया जाता है तैयार?
यह बायोफ्यूल, व्हिस्की के अवशेषों से तैयार किया जाता है जो कि ड्राफ - किण्वन के बाद बचे जौ के अवशेष व पॉट अले - आसवन के बाद और किण्वन के बाद जो लिक्विड बचती है, का मिश्रण है। सेल्टिक रिन्युएब्ल्स ने दोनों को मिश्रित करने के लिए एक नया प्रोसेस भी तैयार किया है।
क्या है लाभ?
व्हिस्की से बायोफ्यूल तैयार किये जाने का पहला लाभ तो यह है कि इसके अवशेष को उपयोग में लाया जाएगा यानि जो भी वेस्ट का उपयोग हो रहा है। वहीं यह गैसोलीन के मुकाबले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 85 प्रतिशत तक कम कर सकता है।
माना जा रहा है कि व्हिस्की बायोफ्यूल का ग्लोबल स्तर पर भारी क्षमता रखता है। इसे स्कॉटलैंड में इसलिए शुरू किया गया है क्योकि वहां की डिस्टेलिरिस 750,000 टन ड्राफ व 2 बिलियन लीटर लीटर पॉट अले का उत्पादन हर साल करती है, ऐसे में यह बहुत ही सस्ती व आसानी से उपलब्ध है।
हालांकि यह सिर्फ वहीं तक सीमित नहीं रहने वाला है। अगर यह बायोफ्यूल सफल रहती है तो व्हिक्सी उत्पादक अन्य देशों जैसे जापान, भारत व यूएस में भी इसका उत्पादन किया जा सकता है। बतातें चले कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी खपत व उत्पादक वाले देशों में से है।
क्या है भारत में व्हिस्की का इतिहास?
भारत में पहली डिस्टेलरी कसौली में खोली गयी थी और इसकी शुरुआत 1820 दशक के अंत में शुरू की गयी थी। सोलन नंबर 1 देश की पहली मुख्य व्हिस्की ब्रांड थी जो कि एक सिंगल मॉल्ट है। इसका नाम सोलन नामक नगर के आधार पर रखा गया था।